मारवाड़ शैली चित्रकला का सबसे प्रसिद्ध स्कूल है, जिसके अंतर्गत जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, किशनगढ़, नागौर शैलियाँ आती है।
जोधपुर शैली
इस शैली का स्वर्ण काल राव मालदेव के शासन काल में था। इस शैली में चित्रित ‘चोखेलाव महल’ के भित्ति चित्र मालदेव की सैनिक रुचि को व्यक्त करते है जिसमें राम-रावण के युद्ध तथा सप्तसती के दृश्यों को चित्रित किया गया हैं यह महल मारवाड़ चित्र शैली एवं जनजीवन के चित्रों की अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध है। रेत के टीले, ऊँट, कौए, चिंकारा, घोडे़, छोटी-छोटी झाड़ियाँ आदि का चित्रण इस शैली की विशेषताएँ है। मारवाड़ शैली में सुनहरे रंगों का, बादलों का, आम के वृक्ष का एवं हाशिएँ में पीले रंग का अधिक प्रयोग किया गया है। बादाम की आंखें और ऊँची पाग जोधपुर शैली की विशेषता है।
मारवाड़ शैली के चित्रकार-
शिवदास, अमरदास, बिशनदास, नारायणदास, रतनभाटी एवं देवदास भाटी हैं, तो इस शैली के प्रमुख चित्र- ढोलामारू, बेली क्रिसन रुकमणी री, नाथ चरित्र, दुर्गा सप्तशती है। एस. के. मूलर नामक एक अंग्रेजी चित्रकार ने दुर्गादास राठौड़ का घोडे़ पर बैठकर भाले से रोटी सेकते हुए चित्र बनाया था।
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ध्यान रहे- मोटा राजा उदयसिंह के समय इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव पड़ा, तख्त सिंह के समय उस शैली पर अंग्रेजी शैली का प्रभाव पड़ा, तो मानसिंह राठौड़ के समय इस शैली पर नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव पड़ गया था। रामा, नाथा, छज्जू, सैफू, ये जोधपुर शैली के चित्रकार हैं। मारवाड़ शैली में निर्मित रागमाला चित्रावली 1623ई. का चित्रांकन वीरजी ने किया था।
नोट- जोधपुर लघु चित्रकला को हाथ से तैयार किया गया है। जो ऊँट की पीठ पर ढोला और मारू जैसे प्रसिद्ध प्रेमियों के दृश्यों को दर्शाती है।
बीकानेर शैली-
बीकानेर शैली महाराजा रायसिंह के समय शुरू हुई, जिसमें भागवत पुराण (इस शैली का प्राचीन चित्रित ग्रंथ) को चित्रित करवाया गया लेकिन इस शैली का सर्वाधिक विकास अनूपसिंह के समय हुआ। अतः इस शैली का स्वर्ण काल अनूपसिंह का शासनकाल कहलाता है। इस शैली के चित्रकार चित्र बनाकर उसके नीचे अपना नाम व तिथि का अंकन करते थे अतः कलाकार उस्ताद कहलाये। रामलाल, अली रजा एंव हसन जैसे विख्यात चित्रकारों का त्रिगुट बीकानेर चित्रशैली से संबंधित है।
ध्यान रहे- ऊँट की खाल पर की जाने वाली चित्रकारी उस्ता कला कहलाती है, जिसके लिए बीकानेर के राजा अनूपसिंह लाहौर से अली रजा व रूकनुद्दीन को लेकर आये लेकिन इस कला को प्रसिद्धि हिसामुद्दीन उस्ता (1986 व 2007 में पद्म श्री से सम्मानित) ने दिलवायी तथा वर्तमान में इस उस्ता कला को बीकानेर के कैमल हाईड ट्रेनिंग सेन्टर में सिखाया जाता है।
जैसलमेर शैली
इस शैली का सर्वाधिक विकास मूलराज द्वितीय के काल में हुआ अतः इस शैली का स्वर्णकाल मूलराज द्वितीय के शासनकाल को कहा जाता है। जैसलमेर शैली में सर्वाधिक चित्र लोद्रवा की राजकुमारी मूमल के पाए जाते है। इसलिए इस शैली को मूमल शैली भी कहते है। लोद्रवा की राजकुमारी मूमल (मरु महोत्सव जैसलमेर में आज भी ‘मिस मूमल प्रतियोगिता’ का आयोजन किया जाता हैं) का चित्र जैसलमेर-चित्रकला शैली का प्रमुख विषय है।
किशनगढ़ (अजमेर) शैली/कागजी शैली
यह राजस्थानी चित्रकला की प्रमुख शैली है। इस शैली के सर्वाधिक चित्र कागज (वसली) पर बने हैं, इसलिए इसे ‘कागजी शैली’ भी कहते हैं। इस शैली में नाव, झील, कमल का फूल, भंवरे एवं नारी के सौन्दर्य (नारी सौन्दर्य के अंतर्गत लम्बे बाल, हाथ, अंगुलियाँ, काजल युक्त नयन, पतली कमर, सिर पर मलमल की ओढनी व हाथ में आधा खिला हुआ कमल लिए नायिका) पर आधारित है, जिसका स्वर्णकाल सांवतसिंह/नागरीदास का शासनकाल था, जिसने अपनी प्रेमिका रसिक प्रिया/बणी ठणी का चित्र मोरध्वज निहालचन्द नामक चित्रकार से बनवाया। इस शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय एरिक डिक्सन व फैयाज अली को जाता है। एरिक डिक्सिन ने इसे ‘‘भारत की मोनालिसा’’ कहा है।
5 मई 1973 की राजस्थानी चित्रशैली के चित्र बणी-ठणी पर 20 पैसे का डाक टिकट जारी किया गया। अमरचंद द्वारा चित्रित चाँदनी रात की संगोष्ठि किशनगढ़ चित्रकला शैली का प्रमुख विषय है तथा इस शैली में मुख्य रूप से ‘केले के वृक्ष’ को चिह्नित किया गया है। किशनगढ़ शैली, कांगड़ा शैली और ब्रज साहित्य से प्रभावित है। सीताराम, बदनसिंह, नानकराम, रामनाथ, तुलसीदास, सवाईराम और लाड़लीदास चित्रकला की किशनगढ़ शैली से संबंधित है।
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