मेवाड़ शैली राजस्थान की सबसे प्राचीन स्कूल मानी जाती थी, जिसके अंतर्गत उदयपुर, नाथद्वारा, चावंड, देवगढ़ शैलियाँ आती हैं।
मेवाड़ शैली / उदयपुर शैली
यह राजस्थान की मूल व सबसे प्राचीन शैली है। मेवाड़ चित्रकला शैली पर सर्वप्रथम गुजरात क्षेत्र का प्रभाव पड़ा। इस शैली का विकास कुम्भा के शासन काल मे शुरू हुआ। इसी कारण राणा कुम्भा को राजस्थान में चित्रकला का जनक कहा जाता है लेकिन मेवाड़ चित्रकला शैली को सुव्यवस्थित रूप देने का श्रेय महाराजा जगतसिंह को दिया जाता है, जिसके काल में मेवाड़ में रागमाला, रसिक प्रिया, गीत गोविंद, पंचतंत्र जैसे विषय लघु चित्रों पर चित्रण हुआ। अतः इस शैली का स्वर्णकाल जगतसिंह प्रथम का काल कहलाता है। जगतसिंह प्रथम ने राजमहल में ‘चितरों की ओवरी’ (तस्वीराँ रो कारखनों) नाम से चित्रकला का विद्यालय खोला था।
कलीला-दमना (मेवाड़ शैली)
विष्णु शर्मा द्वारा लिखित पंचतंत्र की कहानियों का विश्व में सबसे ज्यादा भाषाओं में अनुवाद किया गया है, इन्हीं कहानियों में से एक कहानी को महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के काल में नुरूद्दीन नामक चित्रकार ने चित्रित किया है, जिसके दो पात्र कलीला-दमना है। अकबर के दरबारी कवि अबुल फजल ने इस कहानी को फारसी भाषा में अयारे-दानिस के नाम से अनुवादित किया।
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राज्य में महाराणा मोकल के शासनकाल में हीरानंद द्वारा देलवाड़ा में 1422-23 ई. में लिखित एवं चित्रित ग्रंथ ‘सुपासनाह चरित्रम्’ (सुपाश्र्वनाथ चरितम्) मिला है। वर्तमान में यह चित्र ‘सरस्वती संग्रहालय’ उदयपुर में सुरक्षित है।
नोट- साहिबद्दीन, गंगाराम व मनोहर उदयपुर शैली के चित्रकार है, तो 1605 में मेवाड़ के महाराजा अमरसिंह प्रथम के समय चित्रित रागमाला का चित्रकार निसारूद्दीन का संबंध मेवाड़ शैली से हैं। वर्तमान में ‘रागमाला’ चित्र दिल्ली के अजायबघर में सुरक्षित है। इस शैली का सबसे प्राचीन चित्रित ग्रंथ ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि’ है, जो महाराजा तेजसिंह के काल में चित्रित किया गया।
चावण्ड शैली
महाराण प्रताप द्वारा चावण्ड (आपातकालीन राजधानी) को राजधानी बनाने के साथ ही इस शैली का विकास हुआ। अतः इस शैली का स्वर्णकाल अमरसिंह प्रथम के काल को कहा जाता है। अमरसिंह प्रथम के काल में प्रसिद्ध चितेरे निसारूद्दीन (निसारदी) ने ‘रागमाला’ का चित्रण किया, जो वर्तमान में दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा हुआ है।
नाथद्वारा (राजसमन्द) शैली
यह शैली उदयपुर शैली व ब्रज शैली का मिश्रण है, जिसे वल्लभ शैली भी कहते है। इसमें कृष्ण की लीलायें, कृष्ण-यशोदा के चित्र, गायों, केले के वृक्ष आदि का चित्रण मिलता है। इस शैली का प्रारम्भ व स्वर्णकाल राजसिंह के शासन काल को माना जाता है। नाथद्वारा शैली के प्रख्यात चित्रों का विषय श्री नाथ जी के सहस्त्र स्वरूप है, तो नाथद्वारा की ‘पिछवाईयाँ (भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति के पीछे सफेद कपड़े पर कृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया जाता है), भित्ति-चित्र व हवेली संगीत’ प्रसिद्ध है। गुलाम अली, बलदेव, सालिगराम व रामगोपाल नाथद्वारा शैली से सम्बन्धित है।
देवगढ़ शैली
महाराणा जयसिंह ने 1680 में द्वारिकादास चूण्डावत को देवगढ़ ठिकाना दिया, तभी से चित्रकला की देवगढ़ शैली की शुरूआत हुई। इस शैली में मोती महल तथा अजारा की ओबरी के भित्ति-चित्र दर्शनीय हैं।
ध्यान रहे- देवगढ़ शैली में मेवाड़, मारवाड़ व ढूँढाड़ तीनों चित्र शैलियों का समन्वय दिखाई देता है, तो देवगढ़ चित्रकला शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय डाॅ. श्रीधर अंधारे को दिया जाता है।
नोट-देवगढ़ एवं सावर उप शैली मेवाड़ चित्रकला शैली का भाग है।
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