दृश्य कला क्या है
दृश्यकला का संबंध उन कलाओं से है जो नेत्र से संबंधित हैं अथवा जिन कलाओं को देख सकते हैं । इसीलिए इन्हें चाक्षुष कलाएँ भी कहते हैं । सभी सांसारिक प्राणी अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने के लिए किसी – ना – किसी माध्यम और भाषा का प्रयोग करते हैं , जैसे – चित्रण , लेखन , हाव – भाव , अभिनय , संगीत , नृत्य इत्यादि ।
इस प्रकार से दृश्य कला एक दृश्य भाषा या चाक्षुष मात्र यम है जिसके द्वारा अपनी अभिव्यक्ति को दृश्य रूप में संप्रेषित किया जा सकता है और दर्शक नेत्रों से अवलोकन कर उसका आनन्द ले सकता है । दृश्य कला में उन सभी कलाओं को समाहित किया जाता है जिनमें कलाकार अपनी अलाकृतियों को इस प्रकार बनाता , सजाता हे संवारता है जिससे वे दर्शक को नेत्रों के द्वारा आनन्द प्रदान करती है । एक कलाकार अपने भावों एवं अनुभूतियों के प्रदर्शन हेतु अनेक प्रकार की कलाओं का उपयोग करता है । विद्वानों ने इन कलाओं को ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर तीन भागों में विभक्त किया है ।
- दृश्य कला ( Visual Art ) चित्रकला , स्थापत्य कला , मूर्तिकला ।
- श्रव्य कला ( Audio Art ) – संगीत गायन काव्य कला ।
- श्रव्य – दृश्य कला ( Audio – Visual An ) – नाट्य , नृत्य ।
दृश्य कला के प्रकार
क) चित्रकला :– यह कला समस्त शिल्पों सर्वप्रिय माना जाता है जिसमें भौतिक दैविक एवं आध्यात्मिक भावना तथा सत्यम शिवम सुंदरम के समन्वित रूप की अभिव्यक्ति है। रेखा, वर्ण, वर्तना और अलंकरण इन चारों की सहायता से चित्र का स्वरूप निष्पादित होता है।
ख) मूर्तिकला – भारत में मूर्ति कला को अत्यंत प्रतिष्ठित माना जाता है। प्राचीन भारतीय मंदिरों की मूर्तिकला पर संपूर्ण विश्वास आश्चर्य करता है और मुग्ध होता है। मंदिरों में मूर्तिकला का अत्यंत उदान्त रूप देखने को मिलता है। उदाहरण दक्षिण भारत में नटराज की मूर्ति परमात्मा के विराट स्वरूप को परिलक्षित करता है।
ग) वास्तुकला :- भारतीय वास्तुकला के विकास का स्रोत धर्म है। मूर्ति कला और चित्रकला को वस्तु कला के अंतर्गत ही स्थान दिया गया है प्राचीन गुफाओं, मंदिरों आदि में तीनों कलाएं एक साथ मिलती है। वस्तु कला का सीधा-साधा अर्थ है-“उन भावनाओं का निर्माण कला, जहां निवास किया जाता है।”
चित्रकला , स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला ऐसी कलाएँ हैं जो नेत्रों को तृत्प करते हुए कलाकार एवं दर्शक को आनन्द प्रदान करती हैं । दृश्य कलाओं में एक आकार होता है ,
अतः इन साकार कलाओं को मूर्तिकला का नाम भी दिया गया हैं । दृश्य कला में कला को विषय – वस्तु से लम्बाई एवं ऊँचाई का गुण पाया जाता है । चौड़ाई का आभास अनुपस्थित अथवा न्यून होता है । दृश्य कला में कला का आधार कागज , वस्त्र , चादर , पत्थर आदि होते हैं । इन्हें रंगों अथवा रेखाओं द्वारा सजाया जाता है ।
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कलाकार वास्तविक वस्तु को जिन परिस्थितियों में देखता है , वह उसी के अनुसार वस्तु का पहले अपनी कल्पना में , तदुपरान्त माध्यम पर उनका संचालन करता है । इस प्रकार तैयार दर्श इस प्रकार बनाता है कि चित्रगत वस्तु असली प्रतीत होती है । हालांकि यह सजीवता उसके कलागत चातुर्य पर निर्भर करती है । किसी घटना अथवा प्राकृतिक दृश्य को चित्रित करने में यदि कलाकार घटना के बाहरी वातावरण में अनभिज्ञ है तो कृति में सजीवता का तत्त्व कम ही आ पाता है।
कई बार कलाकार बाह्य वातावरण को जानता तो है , लेकिन उसे प्रदर्शित करना आवश्यक नहीं समझता । वरन् वह अपने विचारों के अनुसार बाहरी वातावरण का निर्माण करते हुए कृति में सजीवता लाने का प्रयास करता है । इस प्रकार निर्मित दर्श में कल्पनाशीलता एवं चिन्तन के तत्त्व अधिक होते हैं । दृश्य कलाओं में प्रमुख रूप से तीन प्रकार की कलाओं को समाहित किया जाता है ।
ये कलाएँ है – मूर्तिकला , वास्तुकला तथा चित्रकला । जिस कला में मूर्तता के तत्त्व सबसे कम होते हैं उसे उतनी ही उच्चकोटि का माना जाता है । इस आधार पर काव्यकला को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है , क्योंकि इसमें मूर्त रूप के तत्त्व होते ही नहीं है । दृश्य कलाओं में मूर्त रूप सबसे अधिक , वास्तुकला में कम तथा सबसे कम चित्रकला में होता है । इसीलिए चित्रकला को उच्चकोटि का दृश्य कला कहा जाता है । मूर्तिकल तथा वास्तुकला का स्थान इसके बाद क्रमशः आता है ।